Tuesday, May 5, 2009

मेरी प्रिय रासपंचाध्यायी {श्रीमदभागवत्तजी}


श्री मद भागवत्तजी और द्वादश स्कंध वामें भी दशम स्कंध पूर्वाध में २९,३०,३१,३२,३३ अध्याय ये रासपंचाध्यायी है । जामें श्री कृष्ण ने शरद ऋतु की पूर्णिमा कुं वेणुनाद करी के व्रजभक्त न कुं अपने पास बुलाय फीर स्वागत कीयो, तत्तपश्चात धर जायवें की कही और पतिव्रता तथा गृहस्थ धर्म को उपदेश कीयो, परंतु गोपीजन आत्मा के पति कुं छोड्के कैसे जाये, वो धर जायके लिये तैयार नही भये और श्री कृष्ण की ये बात सुन के शांत हो गये ओर निची द्रष्टि करी के ठाडे रहे,और अपनी अनन्यता प्रकट करी. तब प्रभु ने शरद ऋतु की पूर्णिमा कुं रास को वरदान दीयो और रासलीला को प्रारंभ भयो । अलौकीक रसदान सबन कुं दीयो तब व्रजभक्त न कुं सौभाग्य मद भयो वा समय श्री कृष्ण वहासुं अंतरध्यान होय गये, तब गोपीजन ने प्रभु की शोध की, श्रीयमुनापुलीन में, तुलसी सुं ,वन वृक्षावली न सुं सबन सुं पूछ्यो की तुमने हमारे श्यामसुंदर कुं कही देख्यो है । तब सबन नें ना कही वा समय सब गोपीजन श्री यमुनाजी के तिर पे इक्कठी भई और करूण रुदन कीयो ओर रूदन करते सु स्वर में गीत गयो वोही " गोपीगीत " है । जब गीत पूरो भयो तब सबनें के मध्य में प्रभु प्रकट होयके रासलीला करी,तब गोपीजन न कुं सर्वात्मभाव प्रकट भयो,अधरामृत पान मिल्यो एसे संयोग्-विप्रयोग को अनुभव करायके प्रभु मिले एसी यह रासपंचाध्यायी मेरी परम प्रिय है ।
लेखक- आचार्यश्री विजयकुमारजी महाराजश्री{कडी-अहमदाबाद्}

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