सोच ही मनुष्य की सोच सदा रहती है । वह कभी भूतकाल की सोच में तो कभी वर्तमान की सोच में खोया रहता है । कभी भविष्य की सोच में रहकर सोचता है । अनेक प्रकार की सोच होती है । कभी सोच मे सफल होता है तो कभी सोच मे असफल होता है ।परन्तु उसकी सोच सदा लगी रहती है, कठीनाई यों में सोच कर कभी पूर्ण सफलता पाता है । कभी कठीनाई यों में सोच ने परभी अपूर्ण रहजाता है ।किसी की सोच से किसीको सफल होते देखता है ।तो उसी प्रकार सोचकर सफल होना चाहता है,परन्तु सफल नही हो पाता है,सफलता की चाबी उसीके पास होती हे पर उस प्रकार नही सोच पाता जिससे वह सफल हो जाय, कईबार थोडी ही सोच काम कर जाती है, ओर वो आगे बढ जाता है। सोचना हर मनुष्य के लिये आवश्यक है, बीना सोचे वो जीवन में आगे बढ ही नही सकता, कभी सोच में कीस्मत काम कर जाती है ओर वो आगे बढ जाता है। परंतु सोच में भी धैर्य,हिम्मत्,आत्मविश्र्वास,ईश्र्वर-कृपा से ही शांति को प्राप्त करता है । कभी सोच से ही अशांत हो जाता है, इसी प्रकार उसकी सोच जीवन भर चलती रहती है,विचारों के साथ भावनाएं बदलती हैं ।ओर सोच भी बदल जाती है,परंतु सोच तो सदा साथ रहती है ।जब वह सोच सोच कर बेबस हो जाता है तब दूसरो की सलाह लेता है ।कभी सलाह का अच्छा परिणाम हो जाता है तो कभी बुरा परिणाम आता है ।परंतु दोनो ही परिणामों में सोच तो उसकी चलती रहती है ।अर्थात्-मनुष्य जब तक जीवित तथा चैतन्य है तब तक सोच उसकी अविरत् चलती रहती है।
लेखक- आचार्यश्री विजयकुमारजी महाराजश्री{कडी-अहमदाबाद्}

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